Kitabein


आज कल किताबें पड़ने का, वक़्त नहीं मिलता
कंप्यूटर पे देख लेते हैं, या इयरफोन पर सुन लिया करते हैं

किताब तोहफे मे देनी हो, तो संदेश लिखने को जगह नहीं मिलती
फूल तो मिलते हैं, पर रखने को पन्नों की करवट नहीं मिलती

वो मोटी सी जिलध, जब एक-एक कर खुलने लगती है
उस किताब की खूबसूरती, कुछ और ही लगती है

वो दो पैसे की किताब, सस्ती और बिकाऊ
क्या कीमत है उसकी, अकेलेपन के सामने

वो जानती है, फिर भी रहती है
सीने के पास, और लोरी दे सुला देती है

वो पीले से पन्ने, वो उंगलियों के निशान, वो हाथों की खुश्बू
उस किताब मे, कई रूहें बस्ती हैं

वो मुड़े हुए पन्ने, वो मिट्टी की परत, वो पन्नों की कड़क
पूछ रही है, आज पड़ोगे नहीं हम को

(I have been a big fan of Gulzar Sahib's poetry. This one is my ode to him.)

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